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आकाश का रंग नीला क्यों दिखाई देता है

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biogas plant क्या होता है

 सामान्य बायोगैस संयंत्र (Simple biogas plant) इस संयंत्र में एक बड़ा टैंक या सिलेण्डर (cylinder) 10-15 फुट गहरा होता है। सिलेण्डर का 3/4 भाग भूमिगत रखा जाता है। सिलेण्डर के ऊपर एक  ढक्कन रखते हैं। इसमें कृषि के व्यर्थ पदार्थों एवं अपशिष्ट व संग्रहित गोबर को भरा जाता है । इसमें समय-समय पर कुछ जल डाला जाता है। इस संयंत्र में एक निकासद्वार होता है जिसका सम्बन्ध एक 2-5 सेमी० की रबर या लोहे के पाइप से होता है। यह उत्पादित गैस के वितरण अर्थात बायोगैस की आपूर्ति के लिये होता है। 30 सेमी० लम्बा एक दूसरा निकास द्वार कर्दम को समय-समय पर बाहर निकालने के लिए होता है।                            क्रिया-विधि (Process) : जानवरो के गोबर में मीथेनोबैक्टीरिया की प्रचुर मात्रा होती है। ये जीवाणु बड़ी मात्रा में उपस्थित सेलुलोज युक्त पदार्थों को तोड़ने का महत्त्वपूर्ण कार्य करते है। सूक्ष्मजीवों की सक्रियता के फलस्वरूप मीथेन गैस निर्मित होती है और संयंत्र का ऊपरी ढक्कन ऊपर को उठता है। निर्मित गैस को रसोई में (खाना पकाने में) ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है। उपयोग के पश्चात कर्दम निकास द्वार से निकालकर

विटामिन B1 अथवा थायमिन

(Vitamin B1 or Thymin) थायमिन या विटामिन B1 की खोज बेरी-बेरी रोग के कारणों की खोज के संदर्भ में हुई थी। सन् 1880 में पूर्वी देशों में जापान के डा० तकाकी ने जापानी सैनिकों में व्याप्त वेरी-बेरी रोग के कारणों की खोज करते समय इस विटामिन का खोज कार्यारम्भ किया था. तत्पश्चात् सन् 1897 में आइखमैन और सन् 1911 में फन्क ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किये। फन्क ने चावल की ऊपरी पर्त के रवे (Crystal) के रूप में एक तत्व प्राप्त किया, जो पक्षियों में पाई जाने वाली बेरी-बेरी नामक बीमारी की अचूक दवा सिद्ध हुई।                    कलान्तर में ऑसबर्न, मेण्डल, मैकालम एवं डेविश द्वारा विटामिन A की खोज के बाद चावल की भूसी से निकाले गये। इसी पदार्थ को विटामिन B का नाम प्रदान किया गाय। सन् 1935 में विलियम्स ने विटामिन B1 की रासायनिक संरचना को ज्ञात करके यह बताया कि इसमे थायोजाल समूह भी उपस्थित है, जिससे इसका वैकल्पिक नाम थायमिन पड गया।                                                                                                                                                                  थायमिन के

नायसिन अथवा निकोटीनिक एसिड के कार्य in hindi

नायसिन अथवा निकोटीनिक एसिड (Nycin or Nictonic Acid) पहले इसको निकोटोनिक ऐसिड कहते थे, किन्तु सन् 1914 में फन्क ने जब पालिश किये गये चावलों से निकोटोनिक अम्ल को अलग किया तभी से इसको नायसिन की संज्ञा प्राप्त हुई।                                                                                                                           इस विटामिन की खोज गोल्डबर्जर तथा उनके सहयोगियों ने सन् 1915 में पैलेग्रा रोग के लिए उत्तरदायी कारणों की खोज के संदर्भ में की थी। सन् 1935 में रेहल बारबर्ग ने बताया कि निकोटोनिक ऐसिड वस्तुतः एक ऐसे ऐन्जाइम का अंश है, जो हाइड्रोजन के परिवहन में सहायता प्रदान करता है। यह विटामिन जल में घुलनशील होता है। इसका स्वाद कसैला, रंगहीन तथा आकार सुई के जैसा होता है। नायसिन विटामिन पर वायु, प्रकाश, ताप, क्षार और अम्ल का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् यह नष्ट नहीं होता है                                                                        2. प्राप्ति के स्रोतहमारी आंतों में उपस्थित बैक्टीरिया कुछ मात्रा में निकोटोनिक ऐसिड का निर्माण करते हैं। इसके अतिरिक्त ट्रप्टोफे

मसाले स्वाद के साथ साथ स्वस्थ में भी सहायक होते है

      मसाले भारत में मसालों का उत्पादन तथा प्रयोग दोनों अधिक होते हैं मसाले जहाँ भोजन के गन्ध तथा स्वाद देते हैं, वहीं कुछ मसाले भूख बढ़ाने का काम करते हैं। कुछ पाचन संस्था के लिये उपयोगी होते है तो कुछ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी होते हैं। कुछ मसाले भोजन का रंग देकर देखने में आकर्षक बनाते हैं।                                                                                                                                                    गीले मसाले .                                                                                                                                    साधारणतः गीले मसाले के रूप में प्याज, लहसुन, अदरक का प्रयोग किया जाता है। जैसे प्याज मसाले के साथ-साथ स्वाद में भी इसका प्रयोग होता है।  तथा  पराठे में भी डाला जाता है।                                                                                                      प्याज.                                                                                                                                        

Biography of Gregor Johann Mendel

ग्रेगर जॉन मेण्डल का जीवन-परिचय (Biography of Gregor Johann Mendel)                                    ग्रेगर जॉन मेण्डल (Gregor Johann Mendel) उत्कृष्ट आनुवंशिकी विद्वानों में अग्रणी थे। उनका जन्म 22 जुलाई सन् 1822 में ऑस्ट्रिया देश में हीनजेंडॉर्फ (Heinzendorf) नामक स्थान पर हुआ था. जहाँ पर इनके पिता ऐन्टॉन मेण्डल एक छोटे से फॉर्म के मालिक थे।                              जिम्नैज़ियम में सन् 1840 में उन्हें स्नातक की डिग्री से सम्मानित किया गया। उनकी किशोरावस्था बड़े दुखों, कठिनाइयो एवं गरीबी में व्यतीत हुई। अक्टूबर 1843 में चेकोस्लोवाकिया के मोराविया (Moravia) नगर के अन्तर्गत बुन (Brunn) शहर में संत ऑगस्टाइनवादी मठ में उन्हे प्रवेश दिलाया गया, जहाँ उन्हें नवदीक्षित व्यक्ति के रूप में ग्रेगर (Gregor) की पदवी प्रदान की गई। वहाँ उन्होंने निर्धारित कार्यों के अलावा प्रकृति-विज्ञान (natural science) में अधिक रुचि दिखाई। सन् 1846 में उन्होंने ब्रुन में ही कृषि-विज्ञान, फल संवर्धन एवं अंगूर की खेती की शिक्षा फिलोसॉफिकल ऐकेडमी में ली। सन् 1849 में उन्होंने एक प्रतिस्थानिक शिक्षक की तरह नेम

कैल्शियम प्राप्ति के सोत्र तथा इसकी कमी से होने वाली बिमारिया

  भारतीय भोजन में कैल्शियम की बहुत कमी पाई जाती है, जबकि कैल्शियम तथा फास्फोरस अस्थियों के मुख्य निर्माणक तत्व होते हैं। कैल्सियम कार्य (Functions) - (1) अस्थियों तथा दांतों का निर्माण और शारीरिक वृद्धि - अस्थियों को बनाने और अस्थियों कंकाल के ढांचे के निर्माण हेतु भी कैल्शियम अत्यावश्यक खनिज लवण माना गया है। पूर्णरूपेण अस्थिनिर्माण भी कैल्शियम तन्तुओं के निर्माण तथा पुराने घिसने और क्षतिग्रस्त होने वाले तन्तुओं के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। मानव शरीर में लगभग 99% केल्शियम दातों और अस्थियों में हीं पाया जाता है। अन्य खनिज लवणों के साथ मिलकर यह खनजि तत्व दांतों तथा अस्थियों को स्थिरता और सुदृढ़ता प्रदान करता है। अस्थियों मेंयदि स्थिरता न हो, तो वह शरीर को आश्रय नहीं देगी। विभिन्न प्रकार की अस्थियां ही शरीर में कोमल और नाजुक अंगों की सुरक्षा करती है। कैल्शियम रक्त के थक्कों को जमाने में भी सहायता करता है। यह हमारे हृदय की गति का नियंत्रण करता है,  मांसपेशियों की क्रियाशीलता बनाये रखता है। यह हमारे शरीर में भार तथा अम्ल की मात्रा एक समान बनाये रखता है। शरीर में क्षार की मात्रा में वृद्ध

अस्थि-विकृति या रिकेट्स (Rickets) किस विटामिन की कमी से होता है

 • 2. विटामिन 'D' की कमी से उत्पन्न रोग  (Diseases Treatment due to Deficiency of Vitamin D)  विटामिन D की पर्याप्त मात्रा   है, अन्यथा हमें विभिन्न प्रकार की शारीरिक व्याधियों का सामना करना पड़ता है.                                                                                                   जैसे अस्थि-विकृति की  गभीर बीमारी माना गया है। विटामिन D की उपस्थिति में फास्फोरसत और कैल्शियम खनिजों का सरलतापूर्वक शोषण होता है, जबकि इसकी अनुपस्थिति में 1 अवशोषण ठीक विधि से नहीं हो पाता और शरीर रोगी हो जाता है। विटामिन D की कमी से उत्पन्न रोगों में अस्थि विकृति या रिकेट्स और आस्टीमलेशिया या मृदुत्लास्थि अति प्रमुख माने गये हैं।                                                                                                                                                         इन रोगों का संक्षिर वर्णन और उपचार निम्नवत् प्रस्तुत है -                                                                                       (1) अस्थि-विकृति या रिकेट्स (Rickets) विटामिन D की कमी से उत्पन

बच्चों पर प्रोटीन की कमी के लक्षण तथा प्रोटीन की कमी से होने वाली बीमारियां

             बच्चों पर प्रोटीन की कमी के कुप्रभाव सन् 1935 में डॉ० सिसली विलियम्स ने अफ्रीकी देशों के बच्चों में क्वापियोरकोर रोग का पता लगाया तथा बताया कि यह रोग प्रोटीन की कमी के से होता है। यह रोग उन बच्चों को होता है जो पूर्वशाला आयु के होते हैं तथा दूध पीना छोड़  चुके होते हैं।                                                                                   क्वाशरकोर बीमारी के मुख्य लक्षण निम्नलिखित है                - (1) पेशियों की क्षति ।                                               (2) पूरे शरीर में सूजन रहना ।                                      (3) त्वचा सूखी और रुखी रहना ।                                  (4)प्यास लगना तथा भूख न लगना ।                               (6) विकास न होना ।                                                  (7) खून की कमी रहना ।                                             (8) चेहरे और शरीर की चमक चले जाना तथा बाल रुखे रहना ।                                                                                 इन सभी कारणों की वजह से बच्चे का विकास रुक
 विटामिन  'ए' की कमी से उत्पन्न रोग और उनका उपचार (Diseases and Treatment Due to Defficiency of Vitamin A) विभिन्न वैज्ञानिक खोजों से स्पष्ट हो चुका है कि विटामिन A मानव शरीर और स्वास्थ्य हेतु अत्यधिक आवश्यक अनिवार्य तथा महत्त्वपूर्ण तत्व है। इस विटामिन की अपर्याप्त मात्रा ग्रहण करते रहने से शरीर और स्वास्थ्य पर सर्वथा प्रतिकूल और हानिप्रद प्रभाव पड़ता है। विटामिन A की कमी से त्वचा और नेत्र रोग उत्पन्न होते हैं।                                                                                                                       रतौधि (Night Blindness) विटामिन A की कमी से (1) रात्रि अन्धता अथवा नेत्र विकार या रतौंधी उत्पन्न होती है। रतौंधी के प्रारम्भिक चरण में ही रोगी यह अनुभव करने लगता है कि यह कम और मन्द प्रकाश में देख नहीं सकता। रतौधीग्रस्त रोगी जब कभी तीव्र प्रकाश वाले स्थान से कम प्रकाश वाले स्थान पर जाता है अर्थात उजाले से अन्धेरे में आता है, तो कुछ समय तक उसको बिल्कुल दिखाई ही नहीं पड़ता है। जैसे-जैसे अधेरा आने लगता है और सूर्य की रोशनी घटने लगती है, वैसे-वैसे स्तौधी के

विटामिन डी की कमी से होने वाले रोग। विटामिन डी कैसे प्राप्त होती है।

                              Vitamin 'D' -विटामिन 'डीयह भी वसा घुलित तथा अस्थि विकृति नाशक महत्वपूर्ण विटामिन है, जिसको भारत जैसे गर्म देशों में प्रचुरता से प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि यह सूर्य की पराकासनी अथवा अल्ट्रा वायलेट किरणों से भी प्राप्त होता है। विटामिन D की खोज अस्थियों की विकृति संबंधी कारणों के खोज के संदर्भ में हुई थी। हेस आगर, विल्स, मेलनवाय तथा मैकालम आदि ने इस विटामिन की खोज में महत्वपूर्ण योगदान किया है।                                                                                                                                                                                             2. प्राप्ति के स्रोत (Sources) - विटामिन D की प्राप्ति आहार के अतिरिक्त सूर्य की सीधी किरणों को ग्रहण करने से होती है। विटामिन D की प्राप्ति का सर्वोत्तम स्रोत सूर्य की पराकासनी किरणों से ही हैं, जो कि हमारे देश में सर्वत्र प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। हमारे शरीर में चर्म के नीचे वसा में आर्गेस्ट्राल नामक एक पदार्थ होता है। जब त्वचा पर सूर्य की किरणों पड़ती हैं, तो
भगवती sarab वर्मा का जन्म 1903 ई० में उन्नाव जिले के शफीपुर में हुआ था। आपने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए०, एल-एल०बी० तक की शिक्षा प्राप्त की। वर्माजी ने प्रायः सभी विधाओं में साहित्य-सर्जना की है। हिन्दी साहित्य में आपका पदार्पण छायावाद की नवीन धारा के कवि के रूप में हुआ था तथा प्रगतिशील कवियों में आपने अपना विशिष्ट स्थान बनाया। वर्माजी एक सफल उपन्यासकार तो थे ही, उच्च्चकोटि के व्यंग्यात्मक कहानीकार के रूप में भी आप प्रतिष्ठित हुए। फिल्म तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भी आपने नाम कमाया। 1981 ई० में आपका देहावसान लखनऊ में हो गया। कृतित्व वर्माजी के कहानी संग्रह हैं- इन्स्टालमेण्ट, दो बाँके तथा राख और चिनगारी। 'मोर्चाबन्दी' नाम से इनक व्यंग्य कथाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है। आपके उपन्यास हैं- पतन, चित्रलेखा, तीन वर्ष, टेढ़े-मेढ़े रास्ते, सामध्य और सीमा-रेखा, सीधी-सच्ची बातें, सबहिं नचावत राम गुसाई, प्रश्न और पारीचिका। आपने कविताएँ, रेडियो रूपक तथा नाटक भी लिखे हैं। कथा-शिल्प और भाषा-शैलीवर्माजी की गणना अपने युग के शीर्षस्थ कहानीकारों में की जाती है। आपकी कहानियों में कला की सजीवता

डेंगू बुखार के लक्षण तथा उसकी रोकथाम

                 डेंगू बुखार (DENGUE FEVER)                                 डेंगू बुखार (dengue fever) को सामान्यतः अस्थि भंग बुखार (break bone fever) के नाम से भी जाना जाता है। डेंगू ज्वर एक भयानक फ्लू-सदृश बीमारी है। यह उष्णकटिबन्धीय (tropical) क्षेत्र का रोग है, जो डेंगू विषाणु (dengue virus) से फैलता है। डेंगू ज्वर (बुखार) एडिस इजिप्टी (Aedes aegypti) नामक मच्छर से फैलता है। बुखार आना, सिर दर्द, पेशियों व जोड़ों में दर्द इसके प्रमुख लक्षण है। साथ ही त्वचा पर विशेष निशान/चकत्ते (rashes) पड़ते हैं, जिनकी तुलना खसरा (measles) से की जाती है। यह रोग अत्यन्त घातक हिए हीमोरेहजिक बुखार (haemorrhagic fever) उत्पन्न करता है जिसके परिणामस्वरूप रुधिर स्राव (bleeding), रुधिर प्लेटलेट्स (blood platelets) की संख्या में गिरावट तथा रुधिर प्लाज्मा (blood plasma) निकलने (leakage) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।                                                                                                                                                                                                   

क्या होती है रुधिर प्लेटलेट्स तथा कितनी होनी चाहिए इनकी संख्या

 रुधिर प्लेटलेट्स या थॉम्बोसाइट्स (Blood platelets or Thrombocytes) : रुधिर प्लेटलेट्स या थ्रॉम्बोसाइट्स केवल  स्तनियों के रुधिर में उपलब्ध रहते हैं। इनका आकार (व्यास) अतिसूक्ष्म लगभग 2 से 4µ होता है। इनकी संख्या अत्यधिक अर्थात्, 2-5 लाख प्रति क्यूबिक मिमी. रक्त होती है।                                                                      थ्रॉम्बोसाइट्स गोल या अंडाकार, केन्द्रक विहीन (non-nucleated), द्विउन्नतोदर या उभयोत्तल (biconvex) व तश्तरीनुमा होती है। ये शरीर से बाहर निकलते ही टूट जाते हैं, अतः इनकी संरचना का गहन अध्ययन आज तक नहीं हो पाया है। इनका विकास लाल अस्थि मज्ज   bone marrow) से लाल रुधिराणुओं के साथ-साथ होता है। श्रॉम्बोसाइट्स का लगभग आधा (50%) अंश पेशियों की एक्टरोमाइसिन (actomycin) जैसे थ्रॉम्बोस्थिनिन (thrombosthinin) नामक मैंटीन तथा 15% अंश वसाओं द्वारा निर्मित होता है। ये प्रमुख रूप से  रुधिर के स्कंदन में सहायक होते है। 

प्लाज्मा क्या है तथा इसके क्या कार्य है

 [1] प्लाज़्मा (Plasma)यह सामान्य रूप से रंगहीन किन्तु अधिक मात्रा के कारण पीले रंग का निर्जीव, स्वच्छ, पारदर्शक तरल पदार्थ है, जो रुधिर का आन्तरकोशीय मैट्रिक्स या आधारभूत तरल (intercellular matrix or यो ground fluid) होता है।                                       प्लाज़्मा रुधिर का लगभग 55-60% भाग तथा शरीर के कुल भार का लगभग 5% अर्थात् किसी स्वस्थ मनुष्य के शरीर में प्लाज़्मा लगभग 3.5 लीटर भाग बनाता है। सामान्य रूप से प्लाज़्मा में 90% जल तथा 10% भाग में कार्बनिक पदार्थ (प्रोटीन, शर्करा, वसा एवं अन्य संवहनीय पदार्थ) तथा प्रमुख अकार्बनिक लवण (सोडियम बाइकार्बोनेट, मैग्नीशियम क्लोराइड आदि) उपस्थित होते हैं। अकार्बनिक लवणों की उपस्थिति के कारण प्लाज़्मा हल्का-सा क्षारीय (alkaline, pH 7.4) होता है। अकार्बनिक लवण आयनों के रूप में होते हैं                                                                                                                             रुधिर प्लाज्मा के कार्य (Functions of Plasma) अन्य कार्बनिक पदार्थ प्लाज्मा के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं।           - 1. परिवहन मे

शराब पीने वाले देखे किस शराब में कितना होता है एल्कोहल

                     प्रूफ स्प्रिट (Proof spirit) -  (i) शराबों की तीव्रता (ऐल्कोहॉल %) व्यक्त करने के लिए एक मानक की आवश्यकता होती है, क्योंकि शराब पर कर-निर्धारण उसके ऐल्कोहॉल % के आधार पर होता  है।                                                                                             पेय (Alcoholic beverages) - ये दो प्रकार के होते (i) 1)असुत(Distilled) - अनासुत ऐल्कोहॉलों को आसवित करके प्राप्त होते हैं। इनमें 35-50% एथिल ऐल्कोहॉल होता है।                                                                          कुछ शराबों में ऐल्कोहॉल % निम्नलिखित है-                ब्रान्डी (Brandy) अंगूर 40-50%                                       रम। (Rum) शीरा 40-55%                                           जिन (Gin) मक्का 35-40%                                                                                                            (ii) अनासुत (Undistilled) - इसमें 3-25% ऐल्कोहॉल होता है। करने इनके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।                                                             

CHIKUNGUNYA किस मच्छर से फैलता है ।और इसके क्या लक्षण है

                              (CHIKUNGUNYA) परिचय (Introduction) चिकनगुनिया विषाणु एक अर्बोविषाणु है जो अल्फा विषाणु (alpha virus) परिवार के अन्तर्गत सम्मिलित है। मानव में इसका प्रवेश एडिस (Aedes) मच्छर के काटने से होता है। यह विषाणु डेंगू रोग के समकक्ष लक्षण वाली बीमारी पैदा करता है। चिकनगुनिया रोग को अफ्रीकन भाषा से लिया गया है, इसका तात्पर्य है जो झुका दें।  एडिस (Aedes) मच्छर मानव शरीर में चिकनगुनिया विषाणु के प्रवेश करने के पश्चात 2 से 4 दिन के बाद इस रोग के लक्षण दर्शित होते हैं। इस रोग के लक्षणों में 39°C (102.2°F) तक का ज्वर हो जाता है। धड़, फिर हाथों और पैरों पर लाल रंग के चकत्ते बन जाते हैं। शरीर के सभी जोड़ों (joints) में असहनीय पीड़ा होती है। रोग के ठीक होने के पश्चात् भी लगभग 1 महीने तक शरीर में दर्द की शिकायत     बनी रहतीहै।                                                                 लक्षण(1)सर्दी के साथ तेज बुखार आना।                            2. सिर दर्द होना।                                                      3. मांसपेशियों में दर्द हेना।                       

केशव दास का जीवन परिचय

हिन्दी काव्य-जगत् में रीतिवादी परम्परा के संस्थापक, प्रचारक महाकवि केशवदास का जन्म मध्य भारत के ओरछा (बुन्देलखण्ड) राज्य में संवत् 1612 वि० (सन् 1555 ई०) में हुआ था। ये सनाढ्य ब्राह्मण कृष्णदत्त के पौत्र तथा काशीनाथ के पुत्र थे। 'विज्ञान गीता' में वंश के मूल पुरुष का नाम वेदव्यास उल्लिखित है। ये भारद्वाज गोत्रीय मार्दनी शाखा के यजुर्वेदी मिश्र उपाधिधारी ब्राह्मण थे। तत्कालीन जिन विशिष्ट जनों से इनका घनिष्ठ परिचय था उनके नाम हैं अकबर, बीरबल, टोडरमल और उदयपुर के राणा अमरसिंह। तुलसीदास जी से इनका साक्षात्कार महाराज इन्द्रजीत के साथ काशी-यात्रा के समय हुआ था। ओरछाधिपति महाराज इन्द्रजीत सिंह इनके प्रधान आश्रयदाता थे, जिन्होंने 21 गाँव इन्हें भेंट में दिये थे। वीरसिंह देव का आश्रय भी इन्हें प्राप्त था। उच्चकोटि के रसिक होने पर भी ये पूरे आस्तिक थे। व्यवहारकुशल, वाग्विदग्ध, विनोदी, नीति- निपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। साहित्य और संगीत, धर्मशास्त्र व राजनीति, ज्योतिष और वैद्यक सभी विषयों का इन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था। ये संस्कृत के विद्वान् तथा अलंकारश

मलिक मुहम्मद जायसी की जीवनी

                मलिक मुहम्मद जायसी   "भक्तिकालीन निर्गुण धारा की प्रेममार्गी शाखा के अग्रगण्य तथा प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने मुसलमान होकर भी हिन्दुओं की कहानियाँ हिन्दुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन में मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामञ्जस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी, वह जायसी के द्वारा पूर्ण हुई।" जायसी के जन्म के सम्बन्ध में अनेक मत हैं। इनकी रचनाओं से जो मत उभरकर सामने आता है, उसके अनुसार आयसी का जन्म सन् 1492 ई0 के लगभग रायबरेली जिले के 'जायस' नामक स्थान में हुआ था। ये स्वयं कहते हैं- 'जायस नगर मोर अस्थान।' जायस के निवासी होने के कारण ही ये जायसी कहलाये। 'मलिक' जायसी को वंश- परम्परा से प्राप्त उपाधि थी और इनका नाम केवल मुहम्मद था। इस प्रकार इनका प्रचलित नाम मलिक मुहम्मद जायसी बना। बाल्यकाल में ही जायसी के माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण शिक्षा का कोई उचित प्रबन्ध न हो सका। सात वर

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की जीवनी

                 आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी गद्य साहित्य के युग-विधायक महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् गाँव में हुआ था। कहा जाता है कि इनके पिता रामसहाय द्विवेदी को महावीर का इष्ट था, इसीलिए इन्होंने पुत्र का नाम महावीरसहाय रखा। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। पाठशाला के प्रधानाध्यापक ने भूलवश इनका नाम महावीरप्रसाद लिख दिया था। यह भूल हिन्दी साहित्य में स्थायी बन गयी। तेरह वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी पढ़ने के लिए इन्होंने रायबरेली के जिला स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ संस्कृत के अभाव में इनको वैकल्पिक विषय फारसी लेना पड़ा। यहाँ एक वर्ष व्यतीत करने के बाद कुछ दिनों तक उन्नाव जिले के रंजीत पुरवा स्कूल में और कुछ दिनों तक फतेहपुर में पढ़ने के पश्चात् ये पिता के पास बम्बई (मुम्बई) चले गये। वहाँ इन्होंने संस्कृत, गुजराती, मराठी और अंग्रेजी का अभ्यास किया। इनकी उत्कट ज्ञान-पिपासा कभी तृप्त न हुई, किन्तु जीविका के लिए इन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली। रेलवे में विभिन्न पदों पर कार्य करने के बाद झाँसी में डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट के कार्यालय में मुख्य लिपिक

स्वामी प्रणवानंद की जीवनी

                  Swami prawadanand भारत की पावन भूमि पर समय-समय पर युगीन महापुरुषों का अवतरण होता रह है। ऐसे ही एक महापुरुष और 'भारत सेवाश्रम संघ' के संस्थापक स्वामी प्रणवानंद का जन्म 29 जनवरी, सन् 1896 ई० को माघी पूर्णिमा के दिन बुधवार को वर्तमान बांग्लादेश के फरीदपुर जिले में बाजितपुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम विनोद था। पिता का नाम विष्णुचरण दास 'विष्णु भुइयों तथा माता का नाम शारदा देवी था। ये बचपन से ही मधुर व्यवहार, निर्मल बुद्धि व शांत स्वभाव के थे और प्रायः किसी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ रहते थे। गाँव की पाठशाला में प्राथमिक शिक्षा के उपरांत उन्हें अंग्रेजी हाईस्कूल में प्रवेश दिलाया गया। पढ़ाई की अपेक्षा वे व्यायाम, साधना व चिंतन में बहुत सक्रिय रहते थे। वे शुद्ध शाकाहारी थे। ब्रह्मचर्य साधना पर उनका विशेष बल था। मन घर नियंत्रण व इंद्रिय संयम के लिए वे आहार संयम, निद्रा संयम आदि के साथ संकल्प साधना के द्वारा आगे बढ़ते गए। ग्रामवासी उन्हें विनोद ब्रह्मचारी के रूप में जानने लगे।उनकी ब्रह्मचर्य साधना, त्याग, तपस्या एवं निःस्वार्थ सेवा भावना की ख्याति दूर-दूर तक फ

महाराजा छत्रसाल

                                   छत्रसाल छत्रसाल  के उन गिने-चुने महापुरुषों में हैं जिन्होंने अपने बल, बु‌द्धि तथा परिश्रम से बहुत साधारण स्थिति में अपने को बहुत बड़ा बना लिया। छत्रसाल के पिता का नाम चम्पतराय था। उनका जीवन सदा रणक्षेत्र में ही बीता। उनकी रानी भी सदा उनके साथ लड़ाई के मैदान में जाती थीं। उन दिनों रानियाँ बहुधा अपने पति के साथ रण में जाती थीं और उनका उत्साहवर्द्धन करती थीं। जब छत्रसाल अपनी माता के गर्भ में थे तब भी उनकी माता चम्पतराय के साथ रणक्षेत्र में ही थीं। चारों तरफ तलवारों की खनखनाहट और गोलियों की वर्षा हो रही थी। ऐसे ही वातावरण में छत्रसाल का जन्म एक पहाडी गाँव में सन् 1649 ई० में हुआ। उनके पिता चम्पतराय ने सोचा कि इस प्रकार के जीवन में छत्रसाल को अपने पास रखना ठीक नहीं है। रानी छत्रसाल को लेकर नेहर चली गई। चार साल तक छत्रसाल वहीं रहे। उसके बाद पिता के पास आए। बचपन से ही छत्रसाल बडे साहसी और निर्भीक थे। इनके खिलौनों में असली तलवार भी थी। इनके खेल भी रण के खेल होते थे। प्रायः सभी लोग कहते थे कि वे अपने जीवन में पराक्रमी और साहसी पुरुष होंगे। इनके गुणों के कारण