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आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की जीवनी

                 आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

हिन्दी गद्य साहित्य के युग-विधायक महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् गाँव में हुआ था। कहा जाता है कि इनके पिता रामसहाय द्विवेदी को महावीर का इष्ट था, इसीलिए इन्होंने पुत्र का नाम महावीरसहाय रखा। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। पाठशाला के प्रधानाध्यापक ने भूलवश इनका नाम महावीरप्रसाद लिख दिया था। यह भूल हिन्दी साहित्य में स्थायी बन गयी। तेरह वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी पढ़ने के लिए इन्होंने रायबरेली के जिला स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ संस्कृत के अभाव में इनको वैकल्पिक विषय फारसी लेना पड़ा। यहाँ एक वर्ष व्यतीत करने के बाद कुछ दिनों तक उन्नाव जिले के रंजीत पुरवा स्कूल में और कुछ दिनों तक फतेहपुर में पढ़ने के पश्चात् ये पिता के पास बम्बई (मुम्बई) चले गये। वहाँ इन्होंने संस्कृत, गुजराती, मराठी और अंग्रेजी का अभ्यास किया। इनकी उत्कट ज्ञान-पिपासा कभी तृप्त न हुई, किन्तु जीविका के लिए इन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली। रेलवे में विभिन्न पदों पर कार्य करने के बाद झाँसी में डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट के कार्यालय में मुख्य लिपिक हो गये। पाँच वर्ष बाद उच्चाधिकारी से खिन्न होकर इन्होंने नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। इनकी साहित्य साधना का क्रम सरकारी नौकरी के नीरस वातावरण में भी चल रहा था और इस अवधि में इनके संस्कृत ग्रन्थों के कई अनुवाद और कुछ आलोचनाएँ प्रकाश में आ चुकी थीं। सन् 1903 ई० में द्विवेदीजी ने 'सरस्वती' पत्रिका का सम्पादन स्वीकार किया। 1920 ई0 तक यह गुरुतर दायित्व इन्होंने निष्ठापूर्वक निभाया। 'सरस्वती' से अलग होने पर इनके जीवन के अन्तिम अठारह वर्ष गाँव के • • • • 1864 ई० में रायबरेली जिले के क नीरस वातावरण में बड़ी कठिनाई से व्यतीत हुए। सन् 1938 ई. में रायबरेली में हिन्दी के इस यशस्वी साहित्यकार का स्वर्गवास हो गया। हिन्दी साहित्य में द्विवेदीजी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया जा सकता है। वह सह लेखक-एक संक्षिप्त परिचय 1864 में जन्म.• जन्म-स्थान-दौलतपुर (रायबरेली), उ० प्र०। पिता-रामसहाय द्विवेदी। • लेखन विधा- निबन्ध, नाटक, काव्य। • भाषा-अत्यन्त प्रभावशाली, संस्कृतमयी और साहित्यिक हिन्दी। • शैली-आलोचनात्मक एवं गवेषणात्मक। • प्रमुख रचनाएँ-हिन्दी-नवरत्न, मेघदूत, शिक्षा, सरस्वती कुमारसंभव, रघुवंश, हिन्दी महाभारत आदि। • उपाधि - काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 'आचार्य' की उपाधि से इन्हें सम्मानित किया। • सम्पादन- 'सरस्वती' पत्रिका। 1938 में निधन हो गया.साहित्य में स्थान द्विवेदी युग के प्रवर्तक तथा समालोचना के सूत्रधार। (48)के कलात्मक विकास का नहीं, हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। द्विवेदी जी ने ज्ञान के विविध क्षेत्रों, इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में आजीवन संलग्न रहे। इन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 'साहित्य वाचस्पति एवं नागरी प्रचारिणी सभा ने 'आचार्य' की उपाधि से सम्मानित किया था। उस समय टीका-टिप्पणी करके सही मार्ग का निर्देशन देनेवाला कोई न था। इन्होंने इस अभाव को दूर किया तथा भाषा के स्वरूप-संगठन, वाक्य-विन्यास, विराम-चिह्नों के प्रयोग तथा व्याकरण की शुद्धता पर विशेष बल दिया। लेखकों की अशुद्धियों को रेखांकित किया। स्वयं लिखकर तथा दूसरों से लिखवाकर इन्होंने हिन्दी गद्य को पुष्ट और परिमार्जित किया। हिन्दी गद्य के विकास में इनका ऐतिहासिक महत्त्व है। द्विवेदीजी ने 50 से अधिक ग्रन्थों तथा सैकड़ों निबन्धों की रचना की थी। ये उच्चकोटि के अनुवादक भी थे। इन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में अनुवाद किया है। द्विवेदी जी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं- निबन्ध-इनके सर्वाधिक निबन्ध 'सरस्वती' में तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं एवं निबन्ध संग्रहों के रूप में प्रकाशित हुए हैं। काव्य संग्रह-'काव्य-मंजूषा'। आलोचना 'हिन्दी नवरत्न', 'नाट्यशास्त्र', 'रसज्ञ रंजन', 'साहित्य-सीकर', 'विचार-विमर्श', 'वाग्विलास', 'साहित्य- संदर्भ', 'कालिदास और उनकी कविता', 'कालिदास की निरंकुशता' आदि। 'हिन्दी महाभारत', 'किरातार्जुनीय', 'रघुवंश', 'विनय-विनोद', 'गंगा लहरी', 'कुमारसंभव', 'विचार-रत्नावली', 'स्वाधीनता', 'शिक्षा', 'बेकन-विचारमाला', मेघदूत का अनुवाद ' वगैरह।'सरस्वती' पत्रिका का संपादन किया।अन्य रचनाएँ-'अद्भुत आलाप', 'संकलन', 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति', 'अतीत-स्मृति' आदि। विविध रचनाएँ-'जल-चिकित्सा', 'संपत्ति विज्ञान', 'वक्तृत्व-कला' आदि।द्विवेदीजी की भाषा अत्यन्त परिष्कृत, परिमार्जित एवं व्याकरण-सम्मत है। उसमें पर्याप्त गति तथा प्रवाह है। इन्होंने हिन्दी के शब्द-भण्डार की श्रीवृद्धि में अप्रतिम सहयोग दिया। इनकी भाषा में कहावतों, मुहावरों, सूक्तियों आदि का प्रयोग भी मिलता है। इन्होंने अपने निबंधों में परिचयात्मक शैली, आलोचनात्मक शैली, गवेषणात्मक शैली तथा आत्म-कथात्मक शैली का प्रयोग किया है। कठिन से कठिन विषय को बोधगम्य रूप में प्रस्तुत करना इनकी शैली की सबसे बड़ी विशेषता है। शब्दों के प्रयोग में इनको रूढ़िवादी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आवश्यकतानुसार तत्सम शब्दों के अतिरिक्त अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी शब्दों का भी इन्होंने व्यवहार किया है। 'महाकवि माघ का प्रभात-वर्णन' निबंध में संस्कृत के महाकवि माघ के प्रभात-वर्णन सम्बन्धी हृदयस्पर्शी स्थलों को निबंधकार ने हमारे सामने रखा है। उसने बहुत ही कलात्मक ढंग से यह दिखलाया है कि किस तरह सूर्य और चन्द्रमा, नक्षत्र एवं दिग्वधुएँ अपनी-अपनी क्रीड़ाओं में तल्लीन हैं। सूर्य की रश्मियों अन्धकार को नष्ट कर जीवन और जगत् को प्रकाश से परिपूर्ण कर देती हैं। रसिक चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से रजनीगंधा को प्रमुदित कर देता है। सूर्य और चन्द्रमा समय- समय पर दिग्वधुओं से कैसे प्रणय-विवेदन करते हुए एक दूसरे के प्रति प्रतिद्वन्द्वित्ता के भाव से भर उठते हैं, कैसे प्रवासी सूर्य का स्थान चन्द्रमा लेकर दिग्वधुओं से हास-परिहास करते हुए सूर्य के कोप का भाजन बन उसके द्वारा परास्त किया जाता है-इन सबका बड़ा मनोहारी चित्रण इस निबंध में किया गया है। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के युगप्रवर्तक साहित्यकारों में शामिल हैं। इन्हें शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली का वास्तविक सर्जक माना जाता है। इसीलिए 1900 ई. से 1922 ई. तक के समय को हिन्दी साहित्य के इतिहास में 'द्विवेदी युग' के नाम से जाना जाता है। ...

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