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केशव दास का जीवन परिचय

हिन्दी काव्य-जगत् में रीतिवादी परम्परा के संस्थापक, प्रचारक महाकवि केशवदास का जन्म मध्य भारत के ओरछा (बुन्देलखण्ड) राज्य में संवत् 1612 वि० (सन् 1555 ई०) में हुआ था। ये सनाढ्य ब्राह्मण कृष्णदत्त के पौत्र तथा काशीनाथ के पुत्र थे। 'विज्ञान गीता' में वंश के मूल पुरुष का नाम वेदव्यास उल्लिखित है। ये भारद्वाज गोत्रीय मार्दनी शाखा के यजुर्वेदी मिश्र उपाधिधारी ब्राह्मण थे। तत्कालीन जिन विशिष्ट जनों से इनका घनिष्ठ परिचय था उनके नाम हैं अकबर, बीरबल, टोडरमल और उदयपुर के राणा अमरसिंह। तुलसीदास जी से इनका साक्षात्कार महाराज इन्द्रजीत के साथ काशी-यात्रा के समय हुआ था। ओरछाधिपति महाराज इन्द्रजीत सिंह इनके प्रधान आश्रयदाता थे, जिन्होंने 21 गाँव इन्हें भेंट में दिये थे। वीरसिंह देव का आश्रय भी इन्हें प्राप्त था। उच्चकोटि के रसिक होने पर भी ये पूरे आस्तिक थे। व्यवहारकुशल, वाग्विदग्ध, विनोदी, नीति- निपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। साहित्य और संगीत, धर्मशास्त्र व राजनीति, ज्योतिष और वैद्यक सभी विषयों का इन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था। ये संस्कृत के विद्वान् तथा अलंकारश

मलिक मुहम्मद जायसी की जीवनी

                मलिक मुहम्मद जायसी   "भक्तिकालीन निर्गुण धारा की प्रेममार्गी शाखा के अग्रगण्य तथा प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने मुसलमान होकर भी हिन्दुओं की कहानियाँ हिन्दुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन में मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामञ्जस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी, वह जायसी के द्वारा पूर्ण हुई।" जायसी के जन्म के सम्बन्ध में अनेक मत हैं। इनकी रचनाओं से जो मत उभरकर सामने आता है, उसके अनुसार आयसी का जन्म सन् 1492 ई0 के लगभग रायबरेली जिले के 'जायस' नामक स्थान में हुआ था। ये स्वयं कहते हैं- 'जायस नगर मोर अस्थान।' जायस के निवासी होने के कारण ही ये जायसी कहलाये। 'मलिक' जायसी को वंश- परम्परा से प्राप्त उपाधि थी और इनका नाम केवल मुहम्मद था। इस प्रकार इनका प्रचलित नाम मलिक मुहम्मद जायसी बना। बाल्यकाल में ही जायसी के माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण शिक्षा का कोई उचित प्रबन्ध न हो सका। सात वर

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की जीवनी

                 आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी गद्य साहित्य के युग-विधायक महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् गाँव में हुआ था। कहा जाता है कि इनके पिता रामसहाय द्विवेदी को महावीर का इष्ट था, इसीलिए इन्होंने पुत्र का नाम महावीरसहाय रखा। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। पाठशाला के प्रधानाध्यापक ने भूलवश इनका नाम महावीरप्रसाद लिख दिया था। यह भूल हिन्दी साहित्य में स्थायी बन गयी। तेरह वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी पढ़ने के लिए इन्होंने रायबरेली के जिला स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ संस्कृत के अभाव में इनको वैकल्पिक विषय फारसी लेना पड़ा। यहाँ एक वर्ष व्यतीत करने के बाद कुछ दिनों तक उन्नाव जिले के रंजीत पुरवा स्कूल में और कुछ दिनों तक फतेहपुर में पढ़ने के पश्चात् ये पिता के पास बम्बई (मुम्बई) चले गये। वहाँ इन्होंने संस्कृत, गुजराती, मराठी और अंग्रेजी का अभ्यास किया। इनकी उत्कट ज्ञान-पिपासा कभी तृप्त न हुई, किन्तु जीविका के लिए इन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली। रेलवे में विभिन्न पदों पर कार्य करने के बाद झाँसी में डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट के कार्यालय में मुख्य लिपिक

स्वामी प्रणवानंद की जीवनी

                  Swami prawadanand भारत की पावन भूमि पर समय-समय पर युगीन महापुरुषों का अवतरण होता रह है। ऐसे ही एक महापुरुष और 'भारत सेवाश्रम संघ' के संस्थापक स्वामी प्रणवानंद का जन्म 29 जनवरी, सन् 1896 ई० को माघी पूर्णिमा के दिन बुधवार को वर्तमान बांग्लादेश के फरीदपुर जिले में बाजितपुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम विनोद था। पिता का नाम विष्णुचरण दास 'विष्णु भुइयों तथा माता का नाम शारदा देवी था। ये बचपन से ही मधुर व्यवहार, निर्मल बुद्धि व शांत स्वभाव के थे और प्रायः किसी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ रहते थे। गाँव की पाठशाला में प्राथमिक शिक्षा के उपरांत उन्हें अंग्रेजी हाईस्कूल में प्रवेश दिलाया गया। पढ़ाई की अपेक्षा वे व्यायाम, साधना व चिंतन में बहुत सक्रिय रहते थे। वे शुद्ध शाकाहारी थे। ब्रह्मचर्य साधना पर उनका विशेष बल था। मन घर नियंत्रण व इंद्रिय संयम के लिए वे आहार संयम, निद्रा संयम आदि के साथ संकल्प साधना के द्वारा आगे बढ़ते गए। ग्रामवासी उन्हें विनोद ब्रह्मचारी के रूप में जानने लगे।उनकी ब्रह्मचर्य साधना, त्याग, तपस्या एवं निःस्वार्थ सेवा भावना की ख्याति दूर-दूर तक फ

महाराजा छत्रसाल

                                   छत्रसाल छत्रसाल  के उन गिने-चुने महापुरुषों में हैं जिन्होंने अपने बल, बु‌द्धि तथा परिश्रम से बहुत साधारण स्थिति में अपने को बहुत बड़ा बना लिया। छत्रसाल के पिता का नाम चम्पतराय था। उनका जीवन सदा रणक्षेत्र में ही बीता। उनकी रानी भी सदा उनके साथ लड़ाई के मैदान में जाती थीं। उन दिनों रानियाँ बहुधा अपने पति के साथ रण में जाती थीं और उनका उत्साहवर्द्धन करती थीं। जब छत्रसाल अपनी माता के गर्भ में थे तब भी उनकी माता चम्पतराय के साथ रणक्षेत्र में ही थीं। चारों तरफ तलवारों की खनखनाहट और गोलियों की वर्षा हो रही थी। ऐसे ही वातावरण में छत्रसाल का जन्म एक पहाडी गाँव में सन् 1649 ई० में हुआ। उनके पिता चम्पतराय ने सोचा कि इस प्रकार के जीवन में छत्रसाल को अपने पास रखना ठीक नहीं है। रानी छत्रसाल को लेकर नेहर चली गई। चार साल तक छत्रसाल वहीं रहे। उसके बाद पिता के पास आए। बचपन से ही छत्रसाल बडे साहसी और निर्भीक थे। इनके खिलौनों में असली तलवार भी थी। इनके खेल भी रण के खेल होते थे। प्रायः सभी लोग कहते थे कि वे अपने जीवन में पराक्रमी और साहसी पुरुष होंगे। इनके गुणों के कारण

छत्रपति शिवाजी महाराज

             Chhatrapati shiva ji  Part(1)  भारतीय इतिहास के महापुरुषों में शिवाजी का नाम प्रमुख है। शिवाजी जीवन भर अपने समकालीन शासकों के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते रहे।  शिवाजी का जन्म अप्रैल सन 1627 ई० को महाराष्ट्र के शिवनेर के किले में हुआ था। इनके पिता का नाम शाहजी और माता का नाम जीजाबाई था। शाहजी पहले अहमदनगर की सेना में सैनिक थे। वहाँ रहकर शाहजी ने बड़ी उन्नति की और वे प्रमुख सेनापति बन गए। कुछ समय बाद शाहजी ने बीजापुर के सुल्तान के यहाँ नौकरी कर ली। जब शिवाजी लगभग दस वर्ष के हुए तब उनके पिता शाहजी ने अपना दूसरा विवाह कर लिया। अब शिवाजी अपनी माता के साथ दादा जी कोणदेव के संरक्षण में पूना में रहने लगे। जीजाबाई धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। उन्होंने बड़ी कुशलता से शिवाजी की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध किया। दादा जी कोणदेव की देख-रेख में शिवाजी को सैनिक शिक्षा मिली और वे घुडसवारी, अस्त्रों-शस्त्रों के प्रयोग तथा अन्य सैनिक कार्यों में शीघ्र ही निपुण हो गए। वे पढ़ना, लिखना तो अधिक नहीं सीख सके, परंतु अपनी माता से रामायण, महाभारत तथा पुराणों की कहानियों सुनकर उन्होंने